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कविता

बँधुआ मुक्त हुआ कोई

आरसी चौहान


किसान के जहन से
अब दफन हो चुकी है
अतीत की कब्र में
दो बैलों की जोड़ी
वह भोर ही उठता है
नाँद में सानी-पानी की जगह
अपने ट्रैक्टर में नाप कर डालता है
तेल
धुल-पोंछ कर दिखाता है अगरबत्ती
ठोक-ठठाकर देखता है टायरों में
अपने बैलों के खुर
हैंडिल में सींग
व उसके हेडलाइट में
आँख गडा़कर झाँकता
बहुत देर तक
जो धीरे-धीरे पूरे बैल की आकृति मे
बदल रहा है
समय -
खेत जोतते ट्रैक्टर के पीछे-पीछे
दौड़ रहा है
कठोर से कठोर परतें टूट रही हैं
सोंधी महक उठी है मिट्टी में
जैसे कहीं
एक बँधुआ मुक्त
हुआ हो कोई।


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